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कृत्रिम गर्भाधान
कृत्रिम विधि से नर पशु से वीर्य एकत्रित करके मादा पशु की प्रजनन नली में रखने की प्रक्रिया को कृत्रिम गर्भाधान कहते हैं| भारत वर्ष में सन् 1937 में पैलेस डेयरी फार्म मैसूर में कृत्रिम गर्भाधान का प्रथम प्रयोग किया गया था| आज सम्पूर्ण भारत वर्ष तथा विश्व में पालतू पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान की विधि अपनायी जा रही है|
वीर्य का एकत्रीकरण व उसका संरक्षण:
चूने हुए अच्छे नस्ल के सांड में से सांड से कृत्रिम विधि द्वारा वीर्य एकत्रित किया जाता है| सांडों को इस कार्य के लिये प्रशिक्षित किया जाता है जिससे कि वह दूसरे अन्य नर पशु अथवा डमी (कृत्रिम पशु) पर चढ़ कर कृत्रिम योनि में वीर्य छोड़ देता है| इस एकत्रित किये वीर्य का स्थूल व सूक्ष्म परीक्षण किया जाता है|स्थूल परीक्षण में वीर्य के रंग, आयतन तथा गाढापन(सघनता) का बारीकी के साथ परीक्षण किया जाता है| सूक्ष्म परीक्षण में वीर्य को सूक्ष्मदर्शी के नीचे रख कर देखा जाता है| इसमें हम वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या, उनकी गति,उनमें जीवित व मृतकों का अनुपात तथा उनमें किसी भी प्रकार की विकृति का पता लगता हैं| आज कल कई केन्द्रों पर वीर्य के कुछ विशेष परीक्षणों की भी व्यवस्था है जिससे शुक्राणुओं के अंडाणु को निषेचित करने की क्षमता का पता चल जाता है| वीर्य के उपरोक्त परीक्षणों के बाद कुछ विशेष माध्यमों के द्वारा उसके आयतन में वृद्धि की जाती है और फिर इस वीर्य को भविष्य में किसी भी स्थान एवं समय पर प्रयोग करने के लिये संरक्षित कर लिया जाता है|
पहले वीर्य द्रव अवस्था में ही संक्षित किया जाता था तथा इसका प्रयोग 3-4 दिन के अंदर करना पड़ता था क्योंकि उसके बाद उसकी गुणवत्ता में काफी कमी आ जाती थी| लेकिन आजकल वीर्य को तरल नत्रजन के अंदर जमी हुई अवस्था में रखा जाता है| घन हिमीकृत वीरव वर्षों तक तरल नत्रजन में गुणवत्ता में बिना किसी कमी के बना रहता है| हिमीकृत वीर्य को एक स्थान से दूसरे सतह तक तरल नत्रजन के अंदर आसानी से ले जाया जा सकता है| इस प्रकार एक देश से दूसरे देश को भी उन्नत श्रेणी के सांड का वीर्य सुविधा पूर्वक भेजा जा सकता है|
गहन हिम्कृत वीर्य द्वारा पशुओं में गर्भाधान की विधि:
अधिक होने के कारण आजकल सम्पूर्ण विश्व में ज्यादातर गहन हिम्कृत वीर्य का ही प्रयोग होने लगा है| इसमें एक प्रशिक्षित व्यक्ति हिम्कृत वीर्य को पुन: द्रव अवथा में लाकर कृत्रिम गर्भाधान गन की सहायता से रेक्टोविजायनल विधि द्वारा गर्मायी हुई मादा की प्रजनन नली में डालता है|
वीर्य का द्रवीकरण (थाइंग करना):
हिम्कृत वीर्य को प्रयोग करने से पहले इसे सामान्य तापमान पर तरल अवस्था में लाया जाता है| इस क्रिया को थाइंग कहते हैं| इसमें एक बीकर में 37 डि०से० तापमान पर पानी लिया जाता है| हिम्कृत वीर्य के तृण को तरल नत्रजन कन्टेनर से निकल कर बीकर में रखे पानी में 15 से 30 सेकिंड के लिये रखते हैं| इसके बाद तृण को पानी से निकाल कर उसे सुखा लिया जाता है|
वीर्य तृण को कृ०ग० गन में भरना:
कृ०ग० गन एक 18-19 इंच लम्बी धातु की नली होती है जिसके अंदर एक पिस्टन लगा होता है| इसके एक सिरे पर प्लास्टिक का एक छल्ला होता है| थाइंग के पश्चात वीर्य तृण का फैक्टरी प्लग वाला सिरा गन के अंदर रखा जाता है तथा पोलिविनायल से सिल किये सिरे को गन से बाहर रखते हैं| इसके पश्चात गन से बाहर वाले सिरे को एक साफ कैँची अथवा स्ट्रा कटर की सहायता से समकोण पर काट देते हैं और एक प्लास्टिक की शीथ को कृ०ग० गन के ऊपर चढ़ाते हैं जिसे छल्ले के द्वारा अपने स्थान पर ठीक से क्स दिया जाता है| अब पिस्टन को थोड़ा सा ऊपर की ओर दबा कर वीर्य तृण से वीर्य के बचाव को चैक किया जाता है|
कृत्रिम गर्भाधान की विधि:
आरंभ में कृ०ग० विजाइनल विधि द्वारा किया जाता था जिसमें वीर्य को विजाइनल स्पैकुलम की सहायता से कृ०ग० केथेटर द्वारा पशु की गर्भाशय ग्रीवा में रखा जाता था| लेकिन अब पूरे विश्व में रेकटो विजाइनल विधि द्वारा कृ०ग० किया जाता है| इस विधि में कृ०ग० तक्नीशियन अपने बायें हाथ को साबुन-पायी या तेल आदि से चिकना करके उसे कृ०ग० के लिये आए पशु की गुदा में डालता है और गर्भाशय ग्रीवा को हाथ में पकड़ लेता है| तत्पश्चात वह दूसरे हाथ में कृ०ग० गन को योनि में प्रविष्ट करते हुए उसे ग्रीवा तक पहुंचता है तथा गुदा में स्थित हाथ के अंगूठे की सहायता से गन को ग्रीवा के बाहरी द्वार में प्रविष्ट करा देता है| इसके पश्चात ग्रीवा की सम्पूर्ण लम्बाई को पार करते हुए गन के सिरे को गर्भाशय बाडी में पहुंचाया जाता है| फिर दाहिने हाथ से पिस्टल दबाकर गन में भरे वीर्य को वहां छोड़ दिया जाता है|
विजाइनल स्पैकुलम विधि की तुलना में रेक्टोविजाइनल विधि के निम्न लिखित प्रमुख लाभ हैं:-
(1) गुदा में हाथ डाल कर पशु के प्रजनन अंगों का भली प्रकार परीक्षण किया जा सकता है तथा उसकी गर्मी का सही पता लग जाता है|
(2) अनेक बार गर्भ धारण किए पशु भी गर्मीं में आ जाते हैं और उन्हें अज्ञानता में गर्भाधान के लिए ले जाया जाता है| ऐसे पशु का इस विधि द्वरा गर्भ परीक्षण भी हो जाता है और वह व्यर्थ में दोबारा गर्भाधान करके गर्भपात के खतरे से बच जाता है|
(3) इस विधि में वीर्य को उचित स्थान पर छोड़ा जाता है जिससे वीर्य व्यर्थ में बर्बाद नहीं होता तथा इसमें ग्र्भ्धार्ण की संभावना अधिक होती है|
गर्भाधान का उचित समय व सावधानियाँ
पशु के मद काल का द्वितीय अर्ध भाग कृ०ग० के लिए उपयुक्त होता है| गर्भाधान के लिए उपयुक्त होता है| गर्भाधान के लिए दूर से लाए लाभ प्रद होता है| पशु पालक को पशु को गर्भाधान के लिए लाते व लेजाते समय उसे डरना या मारना नहीं चाहिए क्योंकि इसे गर्भ धारण की अधिकांश पशुओं में मद च्रक शुरू हो जाता है, लेकिन ब्याने के 50-60 दिनों के बाद ही पशु में गर्भाधान करना उचित रहता है क्योंकि उस समय तक ही पशु का गर्भाशय पूर्णत: सामान्य अवस्था में आ पाता है| प्रसव के 2-3 माह के अंदर पशु को गर्भ धारण कर लेना चाहिए ताकि 12 महीनों के बाद गाय तथा 14 महीनों के बाद भैंस दोबारा बच्चा देने में सक्षम हो सके क्योंकि यही सिद्धांत दुधारू पशु पालन में सफलता की कुंजी है|
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