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जीवाणु जनित रोग
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गलघोंटू रोग
यह रोग अधिकत्तर बरसात के मौसम में गाय व भैंसों में फैलता है। यह घूंतदार रोग है। भैंसों में अधिक होता है। इस रोग के मुख्य लक्षण पशु को तेज़ बुखार होना, गले में सूजन, सासं लेना तथा सासं लेते समय तेज़ आवाज़ होना आदि है। पशु के उपचार के लिए एन्टीबायोटिक व एन्टीबैकटीरियल टीके लगाए जाते है अन्यथा पशु की मृत्यु हो जाती है। इस रोग की रोकथम के लिए रोग- निरोधक टीके जिसका पहला टीका तीन माह की आयु में दूसरा टीका व माह में तथा फिर हर साल टीका लगवाना चाहिए। यह टीका निशुल्क विभाग द्वारा लगाए जाते हैं।
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लंगड़ा बुखार (ब्लैक कवाटर)
यह रोग गाय व भैंसों में होता है। परन्तु गोपशुओं में अधिक होता है। पशु के पिछली व अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती है। जिससे पशु लंगड़ा कर चलने लगता है या फिर बैठ जाता है। तथा सूजन वाले स्थान को दबाने पर कड़-कड़ की आवाज़ आती है। पशु का उपचार शीघ्र करवाना चाहिए क्योंकि इस बीमारी के जीवाणुओं द्वारा हुआ ज़हर शरीर में पूरी तरह फ़ैल जाने से पशु की मृत्यु हो जाती है। इस बीमारी में प्रोकेन पेनिसिलीन काफी प्रभावशाली है। इस बीमारी के रोग निरोधक टीके निःशुल्क लगाए जाते है।
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बाह्म व अंतः परजीवी
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पशुओं के शरीर पर जुएँ, चिचड़ी तथा पिस्सुओं का प्रकोप
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पशुओं में जुएँ, पिस्सु व चिचड़ पशुओं की चमड़ी से खून चूसते हैं। तथा पशुओं में खून की कमी आने से कमजोर हो जाते है। तथा उत्पादन कम हो जाता है। अन्य बीमारियां भी हो जाने का खतरा रहता है। चिचड़ियाँ टीका-फीनर का संक्रमण भी कर देती है। इनसे बचाव हेतु तुरन्त दवाइयों का इस्तेमाल पशु चिकित्साक की सलाह से करना चाहिए।
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पशुओं में अतः परजीवी प्रकोप :-
अतः परजीवी पशु के पेट, आंतों, लीवर आदि में रहकर उसके खून व खुराक पर निर्वाह करते हैं। जिससे पशु कमजोर हो जाता है तथा अन्य बीमारियाँ भी प्रभावीं होती है। उत्पादन क्षमता कम हो जाती है। पशु के गोबर के नमूनों की जांच करवानी चाहिए और उचित दवा देने से परजीवी नष्ट हो जाते है।
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पशुओं के अन्य रोग जो साधारणतः देखने को मिलते है
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मिल्क फीवर (Milk Fever) दुधारू पशुओं में होने वाला एक प्रमुख रोग
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यह मेटाबोलिक बीमारी है हालांकि इसका नाम मिल्क फीवर है। परन्तु इसमें जानवर के शरीर का तापक्रम बढने के ब्याज कम हो जाता है। मासपेशियों में कमजोरी श्वास लेने में कठिनाई, जानवर अपना होश गवा देता है। अगर समय पर इलाज नहीं किया जाता है तो जानवर की मृत्यु हो जाती है। यह रोग जादा दूध देने वाले जानवरों में बहुतापल होता है। क्योंकि अधिक दूध उत्पादन हेतु शरीर को ज्यादा कैल्शियम बन्द कर देता है। और व्याने के आखिरी महीनों में होता है। तो उसका राशन (Concentrate) कम कर देते है या बन्द कर देते हैं। जिससे जानवर के शरीर में कैलशियम की कमी आ जाती है।जानवर सुस्त हो जाता है अपनी गर्दन पेट की तरफ घुमा लेता है। और बैठ जाता है। खड़ा होने में असमर्थ हो जाता है। बचाव:- दुधारू पशुओं को राशन में कैलशियम व फास्फोरस चूंक मिनेरल मिक्चर मिलाकर देना चाहिए। व्याने के 10-15 दिनों तक जानवर का सम्पूर्ण दूध नही दुहना चाहिए। कुछ दूध को लेना में ( Udder) रहने देना चाहिए। उपचार: इंजेक्शन कैल्शियम बोरोग्लूकोनेट 400 से 800 (1000 ml) मि॰ली॰ आधा नाड़ी में (1 / v) तथा आधा चमड़ी के ( s / c) नीचे देना चाहिए। तथा पहले बोतल को शरीर तापमान तक कर लेना चाहिए।
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थनैला (Mastifis) / मेस्टइटिस
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थनैला में दूध वाले पशुओं को लेवे (Udduer)में जीवाणुओं जैसे स्ट्रेपटीकीक्स /- स्तेफलोकोक्स या कोलिफोरम के कारण सोज्स आ जाती है तथा लेषा सख्त हो जाता दूध में विकार पैदा हो जाता है।
बचाव:-
(1) दूध निकालने से पहले व बाद में थनों को किसी एंटीसेप्टिक सोलुशन से धोना चाहिए और दूध निकालने के समय लेवे को साफ़ और सूखा रखना चाहिए।
(2)दूध की सही प्रकार निकालना चाहिए जल्दबाजी नी करनी चाहिए।
(3) दूध के बर्तनों की साफ़ सुथरा रखना चाहिए। और रोड़ में सफाई रखनी चाहिए।
(4) पशु को मिनरल मिक्चर जिसमें कैल्शियम, वीतामिन-ई, ए, ज़ीक इत्यादि ही देना चाहिए। रोग होने पर सही उपचार करवाना चाहिए।
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